उष्णकटिबंधीय वन: जलवायु संकट में पृथ्वी की अंतिम रक्षा पंक्ति

जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के पतन जैसी दोहरी चुनौतियों से जूझ रही है, तब उष्णकटिबंधीय वन एक साथ संकट के शिकार और समाधान के वाहक बनकर उभरे हैं। इन्हें ‘धरती के फेफड़े’ कहा जाता है, लेकिन ये केवल कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने तक सीमित नहीं हैं — ये वर्षा को नियंत्रित करते हैं, वैश्विक मौसम प्रणाली को प्रभावित करते हैं, धरती को ठंडा रखते हैं और आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार भी हैं।

उष्णकटिबंधीय वन: जलवायु का जटिल तंत्र

अमेज़न बेसिन, कांगो बेसिन, दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत जैसे क्षेत्र इन वनों का घर हैं। ये वन “इवैपो-ट्रांसपिरेशन” की प्रक्रिया से वातावरण में नमी छोड़ते हैं, जिससे बादल बनते हैं और वर्षा होती है। इससे न केवल स्थानीय मौसम प्रभावित होता है, बल्कि वैश्विक वर्षा चक्र भी संतुलित रहता है। लगभग 250 अरब टन कार्बन इन वनों और उनकी मिट्टी में संग्रहीत है, और ये प्रतिवर्ष 1.2–1.8 गीगाटन CO₂ अवशोषित करते हैं।

वनों की कटाई: एक विनाशकारी डोमिनो प्रभाव

Global Forest Watch के अनुसार, केवल 2023 में ही 4.1 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन नष्ट हो गए। ब्राज़ील, इंडोनेशिया, कांगो और बोलिविया में वनों की सबसे अधिक कटाई हुई। इसका प्रभाव केवल कार्बन उत्सर्जन तक सीमित नहीं है — इससे स्थानीय वर्षा, सतह का तापमान और वायुमंडलीय नमी प्रवाह तक प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, अमेज़न का वाष्प भारत और अमेरिका तक के कृषि क्षेत्रों को प्रभावित करता है। इसकी कटाई अब सूखे और अनियमित मानसून का कारण बन रही है।

भारत के उष्णकटिबंधीय वन और मानसून

भारत में पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर और अंडमान-निकोबार द्वीपों में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन मौजूद हैं। ये न केवल जैव विविधता के केंद्र हैं, बल्कि मानसूनी प्रणाली के स्थिरीकरण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पश्चिमी घाट को “पानी का टावर” कहा जाता है, जो पेनिनसुलर भारत को जल आपूर्ति करता है। लेकिन झूम खेती, शहरी विस्तार और अव्यवस्थित विकास इन वनों को खतरे में डाल रहे हैं।

समाधान की राह: पुनर्स्थापन और कार्बन वित्त

उष्णकटिबंधीय वनों की रक्षा और पुनर्स्थापन से पेरिस समझौते के लक्ष्यों का 30% जलवायु समाधान संभव हो सकता है। भारत की “हरित भारत मिशन”, राज्य-स्तरीय पुनरवन योजनाएँ (ARR), और ग्रामीण आजीविका के लिए एग्रोफॉरेस्ट्री (ALM) जैसे प्रयास इस दिशा में सकारात्मक संकेत हैं।
साथ ही, REDD+, कार्बन ऑफसेट बाजार और पारिस्थितिकी तंत्र सेवा भुगतान (PES) जैसे मॉडल से वनों की रक्षा को आर्थिक प्रोत्साहन भी मिल रहा है।

तकनीक और पारंपरिक ज्ञान का समन्वय

सैटेलाइट मॉनिटरिंग, ड्रोन सर्वेक्षण और एआई-आधारित रिपोर्टिंग सिस्टम से वनों की स्थिति की निगरानी आसान हुई है। परंतु केवल तकनीक से समाधान संभव नहीं — आदिवासी समुदायों का पारंपरिक ज्ञान, मौसम चक्र, वनस्पति और संरक्षण के अनुभव को शामिल करना आवश्यक है। वन अधिकार अधिनियम के तहत समुदायों को वन अधिकार देना इस दिशा में प्रभावशाली कदम हो सकता है।

वैश्विक कूटनीति में वनों को मिले स्थान

भारत को एक उष्णकटिबंधीय वन गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए, जिसमें निम्न पहलें शामिल हों:

  • न्यायसंगत कार्बन वित्त
  • पुनर्स्थापन हेतु तकनीक हस्तांतरण
  • जैव विविधता क्रेडिट तंत्र
  • सतत आपूर्ति श्रृंखला

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • उष्णकटिबंधीय वन प्रमुख क्षेत्र: अमेज़न, कांगो, दक्षिण-पूर्व एशिया, भारत
  • वार्षिक CO₂ अवशोषण: 1.2–1.8 गीगाटन
  • भारत में प्रमुख वन क्षेत्र: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर, अंडमान-निकोबार
  • वन कटाई दर (2023): 4.1 मिलियन हेक्टेयर
  • प्रमुख पहलें: Green India Mission, REDD+, JFM, Van Dhan Yojana

हमें वनों को केवल कार्बन भंडार या लकड़ी स्रोत नहीं, बल्कि जीवंत जलवायु नियामक के रूप में देखना होगा। इनका क्षरण केवल पारिस्थितिक हानि नहीं, बल्कि जलवायु संघर्ष में हमारी रणनीतिक विफलता भी है। उष्णकटिबंधीय वन पृथ्वी की हरित धड़कन हैं — इसे थमने न दें।

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