इमरजेंसी के 50 साल: जब लोकतंत्र पर लगा था ताला

इमरजेंसी के 50 साल: जब लोकतंत्र पर लगा था ताला

25 जून 1975 को भारत में आपातकाल लागू हुआ था — एक ऐसा कालखंड जिसे भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर माना जाता है। यह 21 महीनों की अवधि (मार्च 1977 तक) नागरिक स्वतंत्रताओं के निलंबन, मीडिया की स्वतंत्रता के हनन, विपक्ष के दमन, और अधिनायकवादी शासन का प्रतीक बन गई। आधी सदी बाद भी इसका राजनीतिक, सामाजिक और संवैधानिक प्रभाव भारत की राजनीति में महसूस किया जा सकता है।

आपातकाल के कारण और पृष्ठभूमि

1971 के आम चुनावों में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आईं इंदिरा गांधी की सरकार पर आर्थिक और राजनीतिक संकटों की मार पड़ी। भारत-पाक युद्ध, 1973 का तेल संकट और सूखा जैसे कारणों से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई के चलते जन असंतोष गहराता गया।
1974 में गुजरात और बिहार में छात्र आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा। जयप्रकाश नारायण ने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया और पूरे देश में विरोध-प्रदर्शनों की लहर फैल गई। इसी दौरान रेलवे कर्मचारियों की ऐतिहासिक हड़ताल ने इंदिरा सरकार को और हिला दिया।
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को निरस्त कर दिया और उन्हें दोषी ठहराया। इस्तीफे की मांग के बीच, 25 जून की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए।

आपातकाल का प्रभाव और दमनचक्र

आपातकाल के दौरान संविधान के विशेष प्रावधानों का प्रयोग करते हुए केंद्र सरकार ने अभूतपूर्व अधिकार प्राप्त किए:

  • संघीय व्यवस्था को एक तरह से समाप्त कर एकात्मक शासन लागू कर दिया गया।
  • विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया — 1.12 लाख से अधिक लोगों को MISA और अन्य कठोर कानूनों के तहत हिरासत में लिया गया।
  • 42वां संविधान संशोधन लाकर संसद को असीमित शक्ति प्रदान की गई और न्यायपालिका की भूमिका सीमित कर दी गई।
  • प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हुए सेंसरशिप लागू की गई। कई पत्रकारों को जेल भेजा गया और अख़बारों पर सेंसरशिप के विरोध में खाली पन्ने छपने लगे।
  • संजय गांधी के नेतृत्व में जबरन नसबंदी और झुग्गियों के विध्वंस जैसे कार्यक्रम चलाए गए, जिनमें व्यापक दमन और हिंसा हुई। तुर्कमान गेट और मुज़फ्फरनगर जैसी घटनाएं इसकी क्रूरता की मिसाल बनीं।

चुनाव और लोकतंत्र की वापसी

1977 की शुरुआत में इंदिरा गांधी ने अचानक आपातकाल हटाने और चुनाव कराने की घोषणा की। शायद उन्हें विश्वास था कि वे फिर से जीतेंगी। लेकिन चुनाव परिणाम उनके विपरीत रहे — जनता पार्टी सत्ता में आई और मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
जनता सरकार ने 44वें संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल के प्रावधानों को सख्त बनाया, जिससे भविष्य में प्रधानमंत्री के लिए इसे लागू करना कठिन हो गया। न्यायिक समीक्षा की अनुमति फिर से दी गई और ‘आंतरिक अशांति’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ को आपातकाल का आधार बनाया गया।

खबर से जुड़े जीके तथ्य

  • इमरजेंसी की घोषणा 25 जून 1975 की रात को हुई और 21 मार्च 1977 को इसे समाप्त किया गया।
  • 42वां संविधान संशोधन (1976) को ‘मिनी संविधान’ भी कहा जाता है।
  • मुज़फ्फरनगर की नसबंदी विरोधी घटना में पुलिस फायरिंग में कम से कम 50 लोग मारे गए थे।
  • रामनाथ गोयनका जैसे पत्रकारों और संस्थानों ने इमरजेंसी के दौरान मीडिया स्वतंत्रता की रक्षा के लिए साहस दिखाया।

इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी रही — कि संविधान में अंतर्निहित शक्तियों का दुरुपयोग लोकतंत्र को क्षण भर में समाप्त कर सकता है। यह दौर न केवल कांग्रेस के एकाधिकार के अंत की शुरुआत था, बल्कि भारतीय राजनीति में नए सामाजिक-राजनीतिक गठबंधनों और नेताओं के उदय की नींव भी रख गया। 50 साल बाद भी, यह घटना भारतीय लोकतंत्र के लिए आत्मावलोकन का अवसर बनी हुई है।

Originally written on June 26, 2025 and last modified on June 26, 2025.

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